
ब्रह्म: गति और स्थिरता का रहस्य
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"एकादशोपनिषद प्रसाद" की इस छठी कड़ी में हम प्रवेश करते हैं ईशावास्योपनिषद के चतुर्थ और पंचम श्लोकों में छिपे गहन रहस्यों की ओर।
ये श्लोक हमें ब्रह्म की रहस्यमयी प्रकृति को समझाते हैं। ब्रह्म एक ऐसा सत्य है जो—
गतिशील भी है और स्थिर भी
मन से भी तेज है, फिर भी अचल है
दूर भी है और निकट भी
सभी जगह विद्यमान है, फिर भी इंद्रियों की पकड़ से परे है
एपिसोड में हम चर्चा करेंगे:
इन श्लोकों का मूल पाठ, भावार्थ और गूढ़ संकेत।
भगवद गीता, मांडूक्य उपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद से तुलनात्मक दृष्टि।
यह गूढ़ सन्देश कि ब्रह्म संसार का कर्ता होते हुए भी अकर्ता है।
जीवन में इसका व्यावहारिक अर्थ:
व्यक्ति बाहरी गतिविधियों में संलग्न रहते हुए भी भीतर स्थिर, शांत और आत्मज्ञान से प्रकाशित रह सकता है।
एपिसोड का सार:
यह उपनिषद हमें यह प्रेरणा देता है कि जैसे ब्रह्म गतिशीलता और स्थिरता का अद्वितीय संतुलन है, वैसे ही मनुष्य को भी संसार में कर्म करते हुए अपनी आत्मा की स्थिरता बनाए रखनी चाहिए। यही मार्ग शांति, संतुलन और मोक्ष की ओर ले जाता है।
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