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“ज्ञानविज्ञानयोग – आत्मिक और भौतिक संतुलन”

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गीता-योग: अध्यात्मिक प्रबोधन की श्रवण यात्रा के इस नौवें एपिसोड में हम श्रीमद्भगवद गीता के सातवें अध्याय — ज्ञानविज्ञानयोग — की गहराइयों में उतरेंगे। यह अध्याय न केवल दार्शनिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमारे जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक पहलुओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने का एक व्यावहारिक मार्गदर्शन भी प्रदान करता है।भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि आध्यात्मिक यात्रा में केवल ज्ञान (सैद्धांतिक या बौद्धिक समझ) ही पर्याप्त नहीं है; विज्ञान (प्रत्यक्ष अनुभव और साक्षात्कार) भी उतना ही आवश्यक है। ज्ञान वह है जो हमें शास्त्रों, गुरुओं और तर्क से प्राप्त होता है — जैसे आत्मा, ईश्वर और ब्रह्मांड के सिद्धांतों की समझ।विज्ञान, इसके विपरीत, उस ज्ञान का प्रत्यक्ष अनुभव है, जो साधना, भक्ति और ध्यान के माध्यम से आत्मसात होता है। जब ये दोनों एक साथ आते हैं, तो व्यक्ति न केवल सिद्धांत जानता है, बल्कि उसे जीता भी है।श्रीकृष्ण ब्रह्मांड की रचना को दो प्रकार की प्रकृति में विभाजित करते हैं:अपरा प्रकृति – यह भौतिक प्रकृति है, जिसमें पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), मन, बुद्धि और अहंकार शामिल हैं। यह परिवर्तनशील और नश्वर है।परा प्रकृति – यह जीवात्मा या चेतना है, जो अविनाशी, शुद्ध और अनंत है।यह शिक्षण हमें यह समझाता है कि हमारा शरीर और मन अपरा प्रकृति का हिस्सा हैं, जबकि हमारा वास्तविक ‘स्व’ परा प्रकृति का अंश है, जो ईश्वर से सीधा जुड़ा हुआ है।श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि माया — उनकी दिव्य शक्ति — जीवात्मा को अपने वास्तविक स्वरूप से दूर कर देती है। माया के प्रभाव से व्यक्ति भौतिक इच्छाओं, अहंकार, और अस्थायी सुखों में उलझा रहता है।माया का यह आवरण तभी हटता है जब व्यक्ति पूर्ण भक्ति और आत्मसमर्पण के मार्ग पर चलता है। यह संदेश आधुनिक जीवन में भी उतना ही प्रासंगिक है, क्योंकि आज भी हमारी व्यस्त जीवनशैली, भौतिक इच्छाएं और सोशल मीडिया जैसी विकर्षण शक्तियाँ हमें अपने आंतरिक स्वरूप से दूर कर देती हैं।गीता में तीन गुणों — सत्त्व (शुद्धता), रजस (क्रियाशीलता) और तमस (जड़ता) — का वर्णन है। ये तीनों प्रकृति के मूल घटक हैं, जो हमारे विचारों, भावनाओं और कर्मों को प्रभावित करते हैं।सत्त्व हमें ज्ञान, ...
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